Monday, April 12, 2010

Terror Law In India

तरह तरह के आंतकनिरोधी कानून



टाडा
टाडा (ञ्ज्रष्ठ्र) यानी कि 'टेररिस्ट ऐेंड डिस्रप्टिव एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्टÓ (ञ्जद्गह्म्ह्म्शह्म्द्बह्यह्ल ड्डठ्ठस्र ष्ठद्बह्यह्म्ह्वश्चह्लद्ब1द्ग ्रष्ह्लद्ब1द्बह्लद्बद्गह्य (क्कह्म्द्ग1द्गठ्ठह्लद्बशठ्ठ) ्रष्ह्ल)। पंजाब में आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम लगाने के मकसद से यह एक्ट लागू किया गया था। पुलिस इसी कानून के तहत पकड़े गए आतंकवादियों को बुक करती थी। यह देश में १९८५ से १९९५ तक प्रभावी रहा। १९८७ में इसे संशोधित भी किया गया। लेकिन मानवाधिकार संगठनों और कई राजनीतिक पार्टियों के विरोध के चलते मई, १९९५ में इसे समाप्त कर दिया गया। १९९३ मुंबई बम धमाकों से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए एक स्पेशल कोर्ट 'टाडाÓ का गठन भी किया गया था।

पोटा
२८ मार्च, २००२ को एनडीए सरकार ने पोटो (क्कह्म्द्ग1द्गठ्ठह्लद्बशठ्ठ शद्घ ञ्जद्गह्म्ह्म्शह्म्द्बह्यद्व ह्रह्म्स्रद्बठ्ठड्डठ्ठष्द्ग (क्कशह्लश) २००१) के स्थान पर पोटा लागू किया। इस कानून में आतंकवादी कानून, आतंकवादी और इस संदर्भ में जांच एजेंसियों को दिए गए विशेष अधिकारों का वर्णन किया गया। कानून लागू होने के बाद प्रशासन आतंकियों से लडऩे के लिए काफी शक्तिशाली हो गया। वह देश में किसी भी व्यक्ति को इस कानून के तहत न सिर्फ गिरफ्तार कर सकता था, बल्कि कोर्ट में चार्ज फाइल किए बगैर उसे १८० दिनों तक नजरबंद भी रख सकता था। पुलिस गवाह की पहचान को अपने तक रख सकती थी। व्यक्ति के पुलिस के समक्ष दिए गए बयान के आधार पर ही उसे दोषी ठहराया जा सकता था। जबकि सामान्य भारतीय कानून में व्यक्ति कोर्ट के समक्ष इस तरह के बयान या इकबालिया जुर्म से मुकर सकता है। लेकिन पोटा में वह ऐसा नहीं कर सकता।
लेकिन भारतीय न्यायिक प्रशासन और पुलिस में भ्रष्टाचार के कारण इस कड़े कानून का दुरुपयोग होने लगा। इसके विरोध में विभिन्न मानवाधिकार संगठनों और नागरिक स्वतंत्रता समूहों ने आवाज बुलंद की। नतीजतन ७ अक्टूबर, २००४ को में यूपीए सरकार ने इसे खत्म कर दिया।
कानून के प्रभाव में रहते कई जाने माने लोग इसकी चपेट में आए। इसमें तमिल नेता वाइको, डीयू के प्रोफेसर ए.आर.गिलानी और जमात-ए-इस्लामी संगठन के नेता सैयद अली शाह गिलानी को पोटा के तहत गिरफ्तार किया गया था।
२६ नवंबर, २००८ को हुए मुंबई हमलों के बाद केंद्रीय सरकार ने फिर से आतंकवाद निरोधी कानून लागू करने की जरूरत महसूस की और अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट, २००८ लाया गया।

मकोका
मकोका (रू्रष्टह्रष्ट्र) का पूरा नाम है रूड्डद्धड्डह्म्ड्डह्यद्धह्लह्म्ड्ड ष्टशठ्ठह्लह्म्शद्य शद्घ ह्रह्म्द्दड्डठ्ठद्बह्यद्गस्र ष्टह्म्द्बद्वद्ग क्चद्बद्यद्य। इसे महाराष्ट्र सरकार ने अंडरवल्र्ड से जुड़े अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए २४ फरवरी, १९९९ को लागू किया था। जहां पोटा में इकबालिया बयान सिर्फ उसे देनेवाले आरोपी के खिलाफ ही सबूत माना जाता था, वहां मकोका में आरोपित का इकबालिया बयान मामले की सुनवाई के दौरान उसके ही नहीं बल्कि दूसरे आरोपितों, मदद पहुंचाने वालों और साजिश रचने वालों के खिलाफ भी सबूत केतौर पर मान्य होता है।
मकोका का सबसे मुख्य और विवादास्पद प्रावधान है एसपी या डीएसपी रैंक से ऊपर के किसी अधिकारी के सामने दिए गए आरोपित के इकबालिया बयान की अदालत में सबूत के तौर पर मान्य होना। कानून के मुताबिक आरोपित का बयान लिखने वाले पुलिस अधिकारी को फिर इसे चीफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को भेजना होगा, जो २४ घंटे में आरोपित से मिलेगा और इसकी जांच करेगा कि क्या उसने यह बयान अपनी मर्जी से दिया है।

गुजकोका
गुजकोका (त्रछ्वष्टह्रष्ट्र) मतलब त्रह्वद्भड्डह्म्ड्डह्ल ष्टशठ्ठह्लह्म्शद्य शद्घ ह्रह्म्द्दड्डठ्ठद्बह्यद्गस्र ष्टह्म्द्बद्वद्ग ्रष्ह्ल। यह गुजरात सरकार का विवादास्पद आतंकवाद निवारण बिल है, जिसे राज्य विधानसभा द्वारा अप्रैल, २००३ में पास किया गया। लेकिन राष्ट्रपति की मंजूरी न मिलने के कारण यह अभी कानून नहीं बन सका है। केंद्र को बिल में तीन उपबंधों पर खासा एतराज है विशेषकरउपबंध १६ पर, जो पुलिस के समक्ष किसी व्यक्ति के दोष मानने को मुकदमे में मान्य करता है। जहां केंद्र इसकी तुलना पोटा से करता है वहां राज्य सरकार की दलील है कि गुजकोक लगभग महाराष्ट्र के मकोका के समान है और केंद्र सरकार को उसे मंजूरी देनी चाहिए।

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