Sunday, June 12, 2016

बारिश, बच्चे और बिंदासपन


बारिश में इंडिया गेट पर नहाते चड्डी पहलवानों की तस्वीरें देखते-देखते पक गया था. इसलिए सोचा कि इस बार अपने मोहल्ले के नन्हें हौनहारों का फोटोशूट करूं. वैसे भी विरोध-प्रदर्शन से खौफ खाई सरकार ने रायसीना हिल्स पर शहीदों की याद में बने इस स्मारक की सुरक्षा इतनी बढ़ा दी है कि आम आदमी के लिए फोटोग्राफी तो दूर, देर शाम तक रुकना भी मुनासिब नहीं. बंदूक ताने जवान लड़कियों की हिफाजत के लिए नहीं, विरोध और बगावत के स्वर फूटने से रोकने के लिए खड़े रहते हैं. बेचारे फेरीवालों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. सैर-सपाटे के मजे लेने वाले कम हुए, तो उनकी कमाई की भी वाट लग गई.

खैर, मैं अभी अपनी कल्पना को इस बरस के मानसून की पहली झमाझम बारिश और उसे ओढ़ने की कोशिश करने वाले लिटिल चैंप्स के दायरे में ही बांधना चाहूंगा. बचपन में हम भी ऐसे मौकों पर खुद को भिगोने से रोक नहीं पाते थे. लेकिन पहली बारिश में मम्मी की पिटाई के डर से मन को मसोसना पड़ जाता था, क्योंकि उनके मुताबिक पहली फुहारें सेहत के नुकसानदायक होती हैं.


लेकिन नई पीढ़ी की मम्मियों ने अपने बच्चों पर ऐसी कोई बंदिशें नहीं लगा रखीं. तो इस बार जब बादल जबरदस्त गरजे और झमाझम बरसे, बच्चे भी घरों से निकल पड़े. हालांकि ये बिंदासपन अब सिर्फ निम्न-मध्यमवर्ग या मध्यमवर्ग की ही जागीर रह गया है. उच्च मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग और ऐसी ही स्वघोषित रईस लोगों की दुनिया में ये शान के खिलाफ है. मैं मानता हूं उनकी किस्मत में ये लुत्फ नहीं.

मोटी-मोटी बारिश की बूंदें जैसे ही तड़ातड़ जमीन पर पड़ीं, हमेशा की तरह बच्चों की खुशी की चाशनी से लिपटी आवाजें आने लगी. चंद पलों में वह अपने-अपने अंडरवियरों का ब्रांड दिखाते नजर आए. ये सब इतना तेजी से हुआ कि जैसे वह घरों में नंगे ही बैठे हों. सब अपने-अपने लंगोटिया यारों को घरों से बुलाते नजर आए. AC की एसी की तैसी के नारे होठों में दबाए इन बच्चों के मुस्कान और सुकून से भरे चहरों ने इन लम्हों को कैमरे में कैद करने के लिए मजबूर कर दिया.


आनंद पर्वत में सबसे नीचे की इस गली में ऊपर की उटपटांग और तंग गलियों का पानी जिस तेजी से आता है, कई बार उसमें लोगों की चप्पलें बह जाती है. जमीन पर बहने वाले इन झरने की तेज धार में बारिश के कूल-कूल पानी के संग ऊपरी इलाके की जाम नालियों और गटरों का पानी भी साथ हो लेता है. लेकिन निचले इलाके में बारिश का मैक्सिमम रेप करने की चाहत में गलियों में उतरे बच्चों के लिए तो ये मजा दुगना वाली चीज होती है. तेज धारा की दिशा के उलट किक मारने और उसमें छई-छप्पा-छई, छपाक-छई करने में ही उनका दिल गार्डन-गार्डन होता है. हम तो मम्मियों और ट्यूशन वाली दीदीयों की चेतावनियों को भूलकर अपनी कॉपियों के पेज फाड़कर कश्ती बनाया करते थे और उसे अनजान मंजिल तक पहुंचाने की कोशिश करते थे. लेकिन इन मॉर्डन छोटूओं में कोई इतना टैलेंटेड नहीं. कश्ती ही नहीं, रॉकेट, हवाई जहाज, गुलाब का फूल, पतंग जैसी कई चीजें ये बनाते ही नहीं.


जगजीत साहब का वही गीत याद आ रहा था... ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, पर लौटा दो मुझको वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी...






Tuesday, May 3, 2016

मुद्दा सियाचिन का

सियाचिन में तैनात ज्यादातर सैनिक लड़ाई से नहीं, बल्कि ठंड और खराब मौसम की वजह से मारे जाते हैं. यहां सेना के रख-रखाव में दोनों देशों के करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं.


हाल में सियाचिन ग्लेशियर के गयारी सेक्टर में पाकिस्तान का सैन्य अड्डा हिमस्खलन की चपेट में आया. इस भीषण हिमस्खलन में 124 पाकिस्तानी सैनिक और 11 नागरिक जिंदा दब गए. सियाचिन ग्लेशियर में भारत और पाकिस्तान ने अपने-अपने हजारों सैनिक तैनात कर रखे हैं, जिन्हें यहां कड़ाके की ठंड और आए दिन आने वाले बर्फीले तूफानों से जूझना पड़ता हैं. समय समय पर दोनों देशों की तरफ से सियाचिन से सेना को वापस हटाने की मांग उठती रही है. लेकिन 7 अप्रैल, 2012 को हुए भयंकर हादसे के बाद यहां से सेना वापस बुलाने का मुद्दा और भी गर्मा गया है.

सियाचिन ग्लेशियर

कश्मीर में कराकोरम रेंज स्थित सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गैर ध्रुवीय ग्लेशियर है. ये दुनिया के सबसे ऊंचा रणक्षेत्र है. ग्लेशियर की समुद्र तल से ऊंचाई 18,875 फीट है. सर्दियों में यहां औसतन 35 फीट तक की बर्फबारी होती है और तापमान यहां -50 डिग्री से भी नीचे चला जाता है. स्थिति इतनी खराब है कि यहां ज्यादातर सैनिक लड़ाई की बजाय ठंड और खराब मौसम की वजह से मारे जाते हैं. इतनी ऊंचाई पर तैनात इन सैनिकों के रख-रखाव में दोनों देशों के करोड़ों रुपये खर्च होते हैं.
जहां तक नाम की बात तो सियाचिन दो शब्दों से मिलकर बना है सिया और चुन. पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टीस्तान क्षेत्र में बोले जाने वाली भाषा बाल्टी में सिया शब्द का अर्थ गुलाब की प्रजाति के पौधे से होता है जो कि इस क्षेत्र में पाया जाता है. चुन का मतलब किसी चीज के बहुतायात में पाए जाने से होता है.,

सीमा विवाद और मौजूदा स्थिति

बर्फ़ से ढका 70 किलोमीटर लंबा ये ग्लेशियर सामरिक रुप से भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के लिए बेदह महत्वपूर्ण है. दरअसल 1972 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब शिमला समझौता हुआ तो सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान पर युद्ध विराम की सीमा तय हो गई. एनजे-9842 भारत-पाक युद्ध विराम सीमा का सबसे अस्पष्ट प्वाइंट है. ये युद्ध विराम सीमा ही एलओसी यानी लाइऩ और कंट्रोल है. लेकिन इस समझौते के मुताबिक तय हुए नक्शे में इस क्षेत्र की स्थिति अस्पष्ट ही रही. संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने भी मान लिया कि इस बंजर और बेहद ठंडे इलाके को लेकर भारत-पाक में कोई विवाद नहीं होगा.

1984 में पाकिस्तान सेना ने इस इलाके में अपना दबदबा बढ़ाना चाहा था. तब भारत ने 1984 में ही ऑपरेशन मेघदूत के जरिए अधिकांश सियाचिन ग्लेशियर को अपने कब्जे में ले लिया था. तब से दोनों देशों ने ही वहां अपने स्थाई सैन्य अड्डे बनाकर हजारों सैनिक तैनात कर रखे हैं. 1988 में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो सियाचिन आईं. वह दोनों देशों में यहां आने वाली पहली प्रधानमंत्री थीं.

कारगिल युद्ध से पहले तक यहां होने वाली व्यर्थ की जान-माल की हानि के चलते भारत और पाकिस्तान दोनों अपनी सेना को यहां से हटाना चाहते थे. समय समय पर दोनों देशों की तरफ से सियाचिन से सेना को वापस हटाने की मांग उठती रही. लेकिन 1999 में कारगिल युद्ध के बाद भारत ने यहां से सेना हटाने की योजना त्याग दी. वर्ष 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और अगले अगले साल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यहां का दौरा किया. सितंबर, 2007 से भारत ने यहां अपने पर्वतारोहण और ट्रैकिंग के अभियान भेजने शुरू कर दिए.


Wednesday, April 4, 2012

सीरिया का राजनीतिक संकट ( Crisis in Syria )



पड़ोसी मुल्कों की तरह सीरिया की जनता का भी सब्र का बांध टूट गया है. जनता ने सालों से सत्ता पर काबिज तानाशाही शासन उखाड़ फेंकने के लिए बगावत के स्वर तेज कर दिए हैं.

लीबिया और मिस्र जैसे पड़ोसी मुल्कों में हुई जन-क्रांतियों से प्रभावित होकर सीरिया की जनता भी अपनी तानाशाही सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक सीरिया में पिछले साल मार्च से शुरु हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद से अब तक 7,500 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. वहीं सरकार का कहना है कि हथियार बंद चरमपंथी गुटों से हुए संघर्ष में कम से कम 2000 सुरक्षाकर्मियों की मौत हो चुकी है. इस गृह युद्ध में हालात इतने बुरे हैं कि सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गहराती चिंता के कारण कई देशों ने यहां अपने दूतावास बंद कर दिए हैं.


विद्रोह की शुरुआत

विरोध पिछले साल 26 जनवरी, 2011 को शुरू हुआ. इस दिन एक युवक के आत्मदाह की खबर आई. मार्च तक आते-आते तानशाही शासन के खिलाफ ये विरोध और तेज हो गया. जनता राजनीतिक सुधारों की मांग कर रही थी. वो चाहती थी कि देश में नागरिक अधिकार फिर से बहाल किए जाएं और वर्ष 1963 से लगे आपातकाल को खत्म किया जाए. लेकिन ये विरोध तब हिंसक हो गया जब दक्षिणी सीरिया के देरा शहर में सुरक्षाबलों ने प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग की. हंगामा ना हो, इस डर से सरकार ने तुरंत शहर में सेना के टैंक भेज दिए गए. बुलंद होते सरकार विरोधी स्वर को दबाने के लिए अगले चंद दिनों में होम्स और बनयास जैसे कई शहरों में सेना तैनात कर दी गई. सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने उत्तरी प्रांत हमा के गवर्नर को पद से हटा दिया और विरोध को दबाने के लिए सेना भेजी. सुरक्षा बलों के इस कदम से हजारों लोग टर्की भाग गए.

आपातकाल का हटना

चंद महीनों में ही सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियो के बीच हुई हिंसक झड़प में कई लोगों की जानें गई. लेकिन इस बीच सरकार का रुख कुछ नर्म पड़ा और उसने प्रदर्शनकारियों को शांत करने के लिए कुछ घोषणाएं की. सरकार ने जेल में बंद कई राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया. साथ ही दशकों से देश में लगे आपातकाल को हटा लिया. राष्ट्रपति बशर अल असद ने राजनीतिक बंदियों के सभी अपराधों को माफ कर दिया और उनके साथ बातचीत के दरवाजे खोलने चाहे. असद वार्ता के जरिए देश में कुछ सुधार चाहते थे. लेकिन जनता का गुस्सा ऊफान पर था और वो असद के तानाशाही रवैये से तंग आ चुकी थी. प्रदर्शनकारियों से सरकार के सुरक्षा बल जिस हिंसक तरीके से निपटे, उसका नतीजा ये हुआ कि लोकतांत्रिक सुधारों की मांग करने वाली जनता असद के इस्तीफे पर अड़ गई.


सीरिया में संप्रदाय की स्थिति

सीरिया की जनसंख्या की 74 फीसदी जनता से सुन्नी संप्रदाय से ताल्लुक रखती है. ईसाई और अलावाइटिस (Alawites) संप्रदाय के लोगों को अल्पसंख्यकों माना जाता है. अलवाइटिस की संख्या यहां 12 फीसदी और ईसाइयों की संख्या यहां 9 फीसदी है. लेकिन सीरिया का राष्ट्रपति बशर अल असद बहुसंख्यक जनसंख्या वाले सुन्नी संप्रदाय से संबंध नहीं रखता. असद अलावाइटिस समुदाय से है जिन्हें शिया मुसलमानों में गिना जाता है. सीरिया के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर बनाए रखने वाले कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस अशांति के पीछे संप्रदायिक तनाव भी एक वजह हो सकता है.

सीरिया को अन्य देशों का जबाव

विरोध-प्रदर्शनों को दबाने के लिये सीरियाई सरकार के हिंसक तरीके की दुनिया भर में निंदा हुई. सबसे पहले अमेरिका और यूरोप ने सीरिया में चल रही हिंसा पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई. सीरिया पर लगाए गए प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया गया. इन देशों के नेता सीरियाई राष्ट्रपति के पद छोड़ने की मांग करने लगे. अरब लीग ने भी देश पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिका की मदद से यूरोपियन संघ ने सितम्बर में सीरिया से तेल के निर्यात पर व्यापारिक प्रतिबन्ध लगा दिया.

हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अरब लीग समर्थित उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें सीरिया में जारी हिंसक हमलों की निंदा की गई है और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद से पद छोड़ने का आग्रह किया गया है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सीरिया में युद्ध विराम के आह्वान के बावजूद इस प्रकार की हिंसक घटनाएं जारी हैं. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वह बल प्रयोग के सख्त खिलाफ है.

इससे पहले रूस और चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अरब लीग के उस प्रस्ताव को वीटो कर दिया, जिसमें सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद से इस्तीफा देने का आह्वान किया गया. रूस और चीन लीबिया मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई से भी नाराज थे.


सीरिया की राजनीतिक अस्थिरता

प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब आधुनिक सीरिया आस्तित्व में आया, इसके बाद से ही यहां राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी है. ओटोमंस की हार के बाद सीरिया में फ्रांस की चलने लगी. 1946 में जाकर उसे फ्रांस से आजादी मिली, लेकिन इसके बाद के दो दशकों में भी यहां उथल-पुथल का दौर जारी रहा. इस बीच सीरिया को न सिर्फ इजराइल से कई युद्ध झेलने पड़े, बल्कि मिस्र से संबंध सुधारने के लिए वह कोई समझौता भी नहीं कर सका. 1971 में हफीज-अल-असद सीरिया के राष्ट्रपति बने और 30 साल राज किया. अपने कार्यकाल में हफीज ने मानवाधिकारों को कुचल कर रख दिया. वर्ष 2000 में हफीज की मौत के बाद उनके पुत्र बशर ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत हासिल कर देश की सत्ता संभाली. हालांकि इन चुनावों में कोई विपक्ष नहीं था.

Tuesday, March 20, 2012

जानें अरब लीग के बारे में



अरब लीग दक्षिण पश्चिम एशिया, उत्तर और उत्तर-पूर्व अफ्रीकी देशों का एक क्षेत्रीय संगठन है. इसका गठन 22 मार्च 1945 को मिस्र का राजधानी काहिरा में 6 संस्थापक राष्ट्रों ने मिलकर किया था. ये संस्थापक सदस्य देश हैं. मिस्र, इराक, ट्रांसजार्डन (जिसका नाम 1949 में बदलकर जार्डन हो गया), लेबनान, सऊदी अरब और सीरिया. लीग का मुख्यालय काहिरा में है और इसकी आधिकारिक भाषा अरबी है. वर्तमान में अरब लीग के प्रमुख नबील अल-अरबी हैं.
सदस्य देश
आज इस लीग में कुल 21 सदस्य हैं. पिछले साल नवंबर माह में अरब लीग में से सीरिया को निलंबित कर दिया गया. अरब लीग ने अपने काम-काज में सीरिया की भागेदारी पर रोक लगा दी है और कहा है कि ये प्रतिबंध तब तक लागू रहेंगे जब तक सीरिया शांति प्रस्ताव को नहीं मानता. इन देशों के अलावा पांच अन्य पर्यवेक्षक देश भी हैं.
सदस्य देशों के नाम : अल्जीरिया, बहरीन, कोमोरोस, जिबूती, मिस्र, इराक, जोर्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मारितानिया, मोरक्को, ओमान, पेलेस्टाइन, कतर, सऊदी अरब, सोमालिया, सूडान, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन
पर्यवेक्षक देश : इरीट्रिया, ब्राजील, टर्की, वेनेजुएला और भारत.
लीग का मकसद
अरब लीग का सबसे अहम मकसद सदस्य देशों के बीच आपसी समन्वय और सहयोग बनाए रखना है. इसका उद्देश्य है कि ये सभी अरब देश एक दूसरे की स्वतंत्रता और संप्रभुता का सम्मान करें और इसे बनाए रखें. साथ ही एक दूसरे के हित के लिए पारस्परिक सहयोग की स्थिति बनाए रखें.
सीरिया में संकट और लीग
अरब लीग सीरिया में आम लोगों का खून खराबा रोकने के लिए प्रयासरत है. हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अरब लीग समर्थित उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें सीरिया में जारी हिंसक हमलों की निंदा की गई है और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद से पद छोड़ने का आग्रह किया गया है. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वह बल प्रयोग के सख्त खिलाफ हैय. इससे पहले भी लीग ने पिछले साल नवंबर महीने में सीरिया को सदस्यता से निलंबित कर दिया और यहां के राष्ट्रपति को हिंसा रोकने की चेतावनी भी दी थी. लीग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को सीरिया में साझा शांति सेना मिशन स्थापित करने के लिए भी कह रही है.

क्या है एनसीटीसी | आतंक के खिलाफ कानून


इन दिनों एनसीटीसी को लेकर केंद्र और राज्यों सरकारों के बीच ठनी हुई है. इसका विरोध करने वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, छत्तीसगढ, कर्नाटक, त्रिपुरा और उत्तराखंड शामिल हैं. इन राज्यों का कहना है कि इसके गठन से देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा.

एनसीटीसी

एनसीटीसी का पूरा नाम है नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र. नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) एक ऐसी शक्तिशाली एजेंसी होगी जो देश भर में आतंकवादी खतरों से जुड़ी सूचनाओं पर जांच-पड़ताल करेगी. ये सेंटर आधिकारिक रूप से एक मार्च 2012 से कार्य शुरू करेगा. इसे अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) कानून के तहत शक्तियां हासिल हैं, जिसके तहत केंद्रीय एजेंसियों को आतंकवाद संबंधित मामलों में गिरफ्तारी या तलाशी के अधिकार हैं.

ये केंद्रीय एजेंस आतंकवाद से जुड़े किसी भी मसले में देशभर में कहीं भी जाकर तलाशी ले सकती हैं और गिरफ्तारी कर सकती हैं. जांच के दौरान ये राज्य की पुलिस को भरोसे में लेंगी लेकिन राज्य सरकार और राज्य पुलिस से इजाजत लेना जरूरी नहीं होगा.

रिपोर्ट करेंगी राज्यों की पुलिस

एनसीटीसी के तहत राज्यों की पुलिस के अलावा एनआईए और एनएसजी जैसी एजेंसी होंगी. ये सारी एजेंसियां आतंकवाद से जुड़े मामलों में एनसीटीसी को रिपोर्ट करेंगी.

एनसीटीसी आईबी के तहत आएगा, जो कि सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करेगा. इसका प्रमुख एक डायरेक्टर होगा जोकि आईबी में अतिरिक्त निदेशक रैंक का होगा. एनसीटीसी के तीन हिस्से होंगे. इसके तीन प्रभाग होंगे और हर प्रभाग का प्रमुख आईबी के संयुक्त निदेशक रैंक का अधिकारी होगा. ये प्रभाग खुफिया जानकारी एकत्र करने और उन्हें वितरित करने, विश्लेषण और परिचालन से जुडे होंगे. एनसीटीसी में आईबी में काम कर रहे लोगों या आईबी में सीधे भर्ती हुए लोगों को शामिल किया जाएगा. रॉ, जेआईसी, सेना इंटेलिजेंस डाइरेक्टोरेट, सीबीडीटी और मादक द्रव्य नियंत्रण ब्यूरो जैसी अन्य एजेंसियों के अधिकारियों को भी इसमें लिया जाएगा.

क्यों कर रहे हैं राज्य विरोध

कई राज्य सरकारों ने केंद्र को एनसीटीसी की कार्यप्रणाली, शक्तियों और कर्तव्यों पर पुनर्विचार करने और उसे वापस लेने का सुझाव दिया है. दरअसल एनसीटीसी को बगैर राज्य सरकार और राज्य पुलिस की अनुमति लिए वहां तलाशी और गिरफ्तारी करने का अधिकार दिया गया है. राज्य की पुलिस और अन्य खुफिया एजेंसियों को आतंक से जुड़ी सभी गोपनीय जानकारी एनसीटीसी के साथ साझा करनी होगी. बस यही बात राज्यों को नागवार गुजर रही है और उन्हें ये अपने क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप दिख रहा है.

Wednesday, September 21, 2011

कोलेजियम पर विवाद



हाल में राज्यसभा ने कोलकाता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ धन की हेराफेरी और झूठे बयान देने के आरोप में महाभियोग प्रस्ताव पास कर दिया. अब ये प्रस्ताव लोकसभा में लाया जाएगा. इस बीच राज्यसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा के अरुण जेटली ने उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की कॉलेजियम द्वारा की जाने वाली नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को वैधानिक नियमन वाले अधिकार दिए जाने चाहिए. यहां विस्तार से जानते हैं इस कोलेजियम और इससे जुड़े विवाद के बारे में...

क्या है कोलेजियम

कोलेजियम एक ऐसी प्रणाली या सिस्टम है जिसके जरिए जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति इसी सिस्टम के तहत होती है. इस सिस्टम में भारत के प्रधान न्यायाधीश और चार अन्य वरिष्ठ जज होते हैं. कोलेजियम का जिक्र भारतीय संविधान में नहीं है.

क्या कहता है संविधान

संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का जिक्र है. इसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा. जजों की नियक्ति के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाएगा. अगर राष्ट्रपति चाहे, तो अन्य जजों से भी सुझाव ले सकता है.

अनुच्छेद 217 में हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति का उल्लेख है. इसमें कहा है कि राष्ट्रपित जजों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से करेगा. इसके अलावा संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से भी सलाह ली जाएगी.

कोलेजियम की शुरुआत

मौजूदा कोलेजियम सिस्टम न्यायपालिका के तीन निर्णयों का नतीजा है. इन तीन निर्णयों को थ्री जजेज केसेज कहा जाता है. फस्ट जजेज केस है एस पी गुप्ता केस (30 दिसंबर, 1981). इसमें जस्टिस जे एस वर्मा ने कहा गया कि ठोस तर्क या कारण के आधार पर राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश दरकिनार कर सकता है. इस निर्णय ने न्यायापालिका में नियुक्तियों को लेकर कार्यपालिका को शक्तिशाली बना दिया. ये स्थिति अगले 12 साल तक रही.

इसके बाद 6 अक्टूबर, 1993 को सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट-ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में निर्णय दिया. ये केस सेकेंड जजेज केस था. कोलेजियम सिस्टम की शुरुआत में इस केस की अहम भूमिका रही. इस केस में एस पी गुप्ता केस के फैसले के उलट ये निर्णय दिया गया कि न्यायापालिक के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका अहम है और इसमें कार्यपालिक का समान अधिकार नहीं दिए जा सकते. इस निर्णय को लेकर पीठ के सदस्यों के असहमति थी. इस निर्णय से परामर्श शब्द के दायरे को काफी सीमित कर दिया.

अगले पांच सालों तक जजों की नियुक्ति और तबादले को लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य दो जजों की भूमिकाओं में असमंजस की स्थिति बनी रही. कई केसों में तो मुख्य न्यायाधीश ने अन्य दो न्यायाधीशों से परामर्श किए बिना एकतरफा फैसले लिए. राष्ट्रपति केवल एक अनुमोदक के तौर पर हो गया.

1998 में राष्ट्रपति के आर नारायणन ने सुप्रीम कोर्ट को एक प्रेजिडेंशियल रेफरेंस जारी किया. इसमें सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 124, 217 और 222 में वर्णित परामर्श शब्द के मायने पूछे गए. जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण संबंधी अहम बातों को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए. जारी की गई पहली गाइडलाइंस में परामर्श शब्द की व्याख्या की गई थी. बताया गया कि परामर्श का मतलब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की उस राय से होगा जो कि अन्य जजों के साथ सलाह-मशविरा करके बनी है. कहा गया कि एकमात्र सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत राय परामर्श नहीं.

इन दिशा-निर्देशों के बाद ही वर्तमान कोलेजियम उभर कर सामने आया. इसके अलावा 28 अक्टूबर, 1998 को जस्टिस एस पी भड़ूचा द्वारा दिया निर्णय थर्ड जजेज केस था. इस केस से एक बार फिर कार्यपालिका पर न्यायापालिका की श्रेष्ठता वाला सिद्धांत रेखांकित हुआ.

क्यों है इस सिस्टम का विरोध

इस सिस्टम पर सबसे बड़ा एतराज ये जताया जाता है कि इसमें न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. साथ ही किसी पृथक सेक्रेटेरिएट के अभाव में नियुक्ति या स्थानांतरण किए जाने वाले जजों की पृष्ठभूमि या उनसे संबंधित अतिआवश्यक जानकारी हासिल नहीं हो पाती. इसी वजह से कोलेजियम बहुत से योग्यतम जूनियर जजों और एडवोकेटों की अनदेखी भी कर देता है. जानकारी सार्वजनिक न किए जाने की वजह से नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता भी नहीं आ पाती.

सौमित्र सेन से पहले जस्टिस पीडी दिनकरन प्रकरण के दौरान भी उच्च न्यायापालिका में नियुक्ति प्रक्रिया पर उंगलियां उठी थी. सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पीडी दिनकरन पर जमीन पर कब्जा करने एवं बेहिसाब संपत्ति जुटाने का आरोप है. यहीं नहीं, पिछले साल भी दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अजित प्रकाश शाह ने अपने विदाई समारोह में सवाल उठाया था कि उनकी प्रोन्नति उच्चतम न्यायालय में क्यों नहीं हुई. समय-समय पर इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं.

कोलेजियम का विकल्प

2003 में एनडीए सरकार के कार्यकाल में लोक सभा में 98वें संविधान संशोधन के तहत एक बिल गया. इस बिल में एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने की सिफारिश की गई, जिसका मुकिया भारत का मुख्य न्यायाधीश होगा. उसके साथ सुप्रीम कोर्ट के ही दो अन्य वरिष्ठ जज और केंद्रीय कानून मंत्री होगा. आयोग में एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति भी होगा, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से करेगा. ये आयोग जजों की नियक्ति, उनका स्थानांतरण और उसके खिलाफ लगने वाले अनियमितताओं के आरोपों की जांच करेगा.

Wednesday, August 24, 2011

Why We Need So Many Annas & Jan Lokpals

शौचालय में अनाथालय...। रहम करके ये मत पूछना कि ये फोटो कहां की है.
बदलाव के लिए हमें अन्ना और बिल, दोनों की जरूरत है. वैसे बात केवल राजनीतिक भ्रष्टाचार की ही नहीं है, बात सामाजिक और मानसिक भ्रष्टाचार की भी है, जिसके लिए ना जाने देश को कितने अन्ना, गांधी और राजा राममोहन रायों की जरूरत है.