Wednesday, April 4, 2012

सीरिया का राजनीतिक संकट ( Crisis in Syria )



पड़ोसी मुल्कों की तरह सीरिया की जनता का भी सब्र का बांध टूट गया है. जनता ने सालों से सत्ता पर काबिज तानाशाही शासन उखाड़ फेंकने के लिए बगावत के स्वर तेज कर दिए हैं.

लीबिया और मिस्र जैसे पड़ोसी मुल्कों में हुई जन-क्रांतियों से प्रभावित होकर सीरिया की जनता भी अपनी तानाशाही सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक सीरिया में पिछले साल मार्च से शुरु हुए हिंसक प्रदर्शनों के बाद से अब तक 7,500 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. वहीं सरकार का कहना है कि हथियार बंद चरमपंथी गुटों से हुए संघर्ष में कम से कम 2000 सुरक्षाकर्मियों की मौत हो चुकी है. इस गृह युद्ध में हालात इतने बुरे हैं कि सुरक्षा व्यवस्था को लेकर गहराती चिंता के कारण कई देशों ने यहां अपने दूतावास बंद कर दिए हैं.


विद्रोह की शुरुआत

विरोध पिछले साल 26 जनवरी, 2011 को शुरू हुआ. इस दिन एक युवक के आत्मदाह की खबर आई. मार्च तक आते-आते तानशाही शासन के खिलाफ ये विरोध और तेज हो गया. जनता राजनीतिक सुधारों की मांग कर रही थी. वो चाहती थी कि देश में नागरिक अधिकार फिर से बहाल किए जाएं और वर्ष 1963 से लगे आपातकाल को खत्म किया जाए. लेकिन ये विरोध तब हिंसक हो गया जब दक्षिणी सीरिया के देरा शहर में सुरक्षाबलों ने प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग की. हंगामा ना हो, इस डर से सरकार ने तुरंत शहर में सेना के टैंक भेज दिए गए. बुलंद होते सरकार विरोधी स्वर को दबाने के लिए अगले चंद दिनों में होम्स और बनयास जैसे कई शहरों में सेना तैनात कर दी गई. सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ने उत्तरी प्रांत हमा के गवर्नर को पद से हटा दिया और विरोध को दबाने के लिए सेना भेजी. सुरक्षा बलों के इस कदम से हजारों लोग टर्की भाग गए.

आपातकाल का हटना

चंद महीनों में ही सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियो के बीच हुई हिंसक झड़प में कई लोगों की जानें गई. लेकिन इस बीच सरकार का रुख कुछ नर्म पड़ा और उसने प्रदर्शनकारियों को शांत करने के लिए कुछ घोषणाएं की. सरकार ने जेल में बंद कई राजनीतिक बंदियों को रिहा कर दिया. साथ ही दशकों से देश में लगे आपातकाल को हटा लिया. राष्ट्रपति बशर अल असद ने राजनीतिक बंदियों के सभी अपराधों को माफ कर दिया और उनके साथ बातचीत के दरवाजे खोलने चाहे. असद वार्ता के जरिए देश में कुछ सुधार चाहते थे. लेकिन जनता का गुस्सा ऊफान पर था और वो असद के तानाशाही रवैये से तंग आ चुकी थी. प्रदर्शनकारियों से सरकार के सुरक्षा बल जिस हिंसक तरीके से निपटे, उसका नतीजा ये हुआ कि लोकतांत्रिक सुधारों की मांग करने वाली जनता असद के इस्तीफे पर अड़ गई.


सीरिया में संप्रदाय की स्थिति

सीरिया की जनसंख्या की 74 फीसदी जनता से सुन्नी संप्रदाय से ताल्लुक रखती है. ईसाई और अलावाइटिस (Alawites) संप्रदाय के लोगों को अल्पसंख्यकों माना जाता है. अलवाइटिस की संख्या यहां 12 फीसदी और ईसाइयों की संख्या यहां 9 फीसदी है. लेकिन सीरिया का राष्ट्रपति बशर अल असद बहुसंख्यक जनसंख्या वाले सुन्नी संप्रदाय से संबंध नहीं रखता. असद अलावाइटिस समुदाय से है जिन्हें शिया मुसलमानों में गिना जाता है. सीरिया के राजनीतिक घटनाक्रम पर नजर बनाए रखने वाले कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इस अशांति के पीछे संप्रदायिक तनाव भी एक वजह हो सकता है.

सीरिया को अन्य देशों का जबाव

विरोध-प्रदर्शनों को दबाने के लिये सीरियाई सरकार के हिंसक तरीके की दुनिया भर में निंदा हुई. सबसे पहले अमेरिका और यूरोप ने सीरिया में चल रही हिंसा पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई. सीरिया पर लगाए गए प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया गया. इन देशों के नेता सीरियाई राष्ट्रपति के पद छोड़ने की मांग करने लगे. अरब लीग ने भी देश पर प्रतिबंध लगा दिया. अमेरिका की मदद से यूरोपियन संघ ने सितम्बर में सीरिया से तेल के निर्यात पर व्यापारिक प्रतिबन्ध लगा दिया.

हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अरब लीग समर्थित उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें सीरिया में जारी हिंसक हमलों की निंदा की गई है और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद से पद छोड़ने का आग्रह किया गया है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सीरिया में युद्ध विराम के आह्वान के बावजूद इस प्रकार की हिंसक घटनाएं जारी हैं. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वह बल प्रयोग के सख्त खिलाफ है.

इससे पहले रूस और चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अरब लीग के उस प्रस्ताव को वीटो कर दिया, जिसमें सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद से इस्तीफा देने का आह्वान किया गया. रूस और चीन लीबिया मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई से भी नाराज थे.


सीरिया की राजनीतिक अस्थिरता

प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब आधुनिक सीरिया आस्तित्व में आया, इसके बाद से ही यहां राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी है. ओटोमंस की हार के बाद सीरिया में फ्रांस की चलने लगी. 1946 में जाकर उसे फ्रांस से आजादी मिली, लेकिन इसके बाद के दो दशकों में भी यहां उथल-पुथल का दौर जारी रहा. इस बीच सीरिया को न सिर्फ इजराइल से कई युद्ध झेलने पड़े, बल्कि मिस्र से संबंध सुधारने के लिए वह कोई समझौता भी नहीं कर सका. 1971 में हफीज-अल-असद सीरिया के राष्ट्रपति बने और 30 साल राज किया. अपने कार्यकाल में हफीज ने मानवाधिकारों को कुचल कर रख दिया. वर्ष 2000 में हफीज की मौत के बाद उनके पुत्र बशर ने राष्ट्रपति चुनावों में जीत हासिल कर देश की सत्ता संभाली. हालांकि इन चुनावों में कोई विपक्ष नहीं था.

Tuesday, March 20, 2012

जानें अरब लीग के बारे में



अरब लीग दक्षिण पश्चिम एशिया, उत्तर और उत्तर-पूर्व अफ्रीकी देशों का एक क्षेत्रीय संगठन है. इसका गठन 22 मार्च 1945 को मिस्र का राजधानी काहिरा में 6 संस्थापक राष्ट्रों ने मिलकर किया था. ये संस्थापक सदस्य देश हैं. मिस्र, इराक, ट्रांसजार्डन (जिसका नाम 1949 में बदलकर जार्डन हो गया), लेबनान, सऊदी अरब और सीरिया. लीग का मुख्यालय काहिरा में है और इसकी आधिकारिक भाषा अरबी है. वर्तमान में अरब लीग के प्रमुख नबील अल-अरबी हैं.
सदस्य देश
आज इस लीग में कुल 21 सदस्य हैं. पिछले साल नवंबर माह में अरब लीग में से सीरिया को निलंबित कर दिया गया. अरब लीग ने अपने काम-काज में सीरिया की भागेदारी पर रोक लगा दी है और कहा है कि ये प्रतिबंध तब तक लागू रहेंगे जब तक सीरिया शांति प्रस्ताव को नहीं मानता. इन देशों के अलावा पांच अन्य पर्यवेक्षक देश भी हैं.
सदस्य देशों के नाम : अल्जीरिया, बहरीन, कोमोरोस, जिबूती, मिस्र, इराक, जोर्डन, कुवैत, लेबनान, लीबिया, मारितानिया, मोरक्को, ओमान, पेलेस्टाइन, कतर, सऊदी अरब, सोमालिया, सूडान, ट्यूनीशिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन
पर्यवेक्षक देश : इरीट्रिया, ब्राजील, टर्की, वेनेजुएला और भारत.
लीग का मकसद
अरब लीग का सबसे अहम मकसद सदस्य देशों के बीच आपसी समन्वय और सहयोग बनाए रखना है. इसका उद्देश्य है कि ये सभी अरब देश एक दूसरे की स्वतंत्रता और संप्रभुता का सम्मान करें और इसे बनाए रखें. साथ ही एक दूसरे के हित के लिए पारस्परिक सहयोग की स्थिति बनाए रखें.
सीरिया में संकट और लीग
अरब लीग सीरिया में आम लोगों का खून खराबा रोकने के लिए प्रयासरत है. हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अरब लीग समर्थित उस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, जिसमें सीरिया में जारी हिंसक हमलों की निंदा की गई है और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद से पद छोड़ने का आग्रह किया गया है. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वह बल प्रयोग के सख्त खिलाफ हैय. इससे पहले भी लीग ने पिछले साल नवंबर महीने में सीरिया को सदस्यता से निलंबित कर दिया और यहां के राष्ट्रपति को हिंसा रोकने की चेतावनी भी दी थी. लीग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को सीरिया में साझा शांति सेना मिशन स्थापित करने के लिए भी कह रही है.

क्या है एनसीटीसी | आतंक के खिलाफ कानून


इन दिनों एनसीटीसी को लेकर केंद्र और राज्यों सरकारों के बीच ठनी हुई है. इसका विरोध करने वाले राज्यों में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उड़ीसा, पंजाब, छत्तीसगढ, कर्नाटक, त्रिपुरा और उत्तराखंड शामिल हैं. इन राज्यों का कहना है कि इसके गठन से देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा.

एनसीटीसी

एनसीटीसी का पूरा नाम है नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक केंद्र. नैशनल काउंटर टेररिज्म सेंटर (एनसीटीसी) एक ऐसी शक्तिशाली एजेंसी होगी जो देश भर में आतंकवादी खतरों से जुड़ी सूचनाओं पर जांच-पड़ताल करेगी. ये सेंटर आधिकारिक रूप से एक मार्च 2012 से कार्य शुरू करेगा. इसे अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट (यूएपीए) कानून के तहत शक्तियां हासिल हैं, जिसके तहत केंद्रीय एजेंसियों को आतंकवाद संबंधित मामलों में गिरफ्तारी या तलाशी के अधिकार हैं.

ये केंद्रीय एजेंस आतंकवाद से जुड़े किसी भी मसले में देशभर में कहीं भी जाकर तलाशी ले सकती हैं और गिरफ्तारी कर सकती हैं. जांच के दौरान ये राज्य की पुलिस को भरोसे में लेंगी लेकिन राज्य सरकार और राज्य पुलिस से इजाजत लेना जरूरी नहीं होगा.

रिपोर्ट करेंगी राज्यों की पुलिस

एनसीटीसी के तहत राज्यों की पुलिस के अलावा एनआईए और एनएसजी जैसी एजेंसी होंगी. ये सारी एजेंसियां आतंकवाद से जुड़े मामलों में एनसीटीसी को रिपोर्ट करेंगी.

एनसीटीसी आईबी के तहत आएगा, जो कि सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करेगा. इसका प्रमुख एक डायरेक्टर होगा जोकि आईबी में अतिरिक्त निदेशक रैंक का होगा. एनसीटीसी के तीन हिस्से होंगे. इसके तीन प्रभाग होंगे और हर प्रभाग का प्रमुख आईबी के संयुक्त निदेशक रैंक का अधिकारी होगा. ये प्रभाग खुफिया जानकारी एकत्र करने और उन्हें वितरित करने, विश्लेषण और परिचालन से जुडे होंगे. एनसीटीसी में आईबी में काम कर रहे लोगों या आईबी में सीधे भर्ती हुए लोगों को शामिल किया जाएगा. रॉ, जेआईसी, सेना इंटेलिजेंस डाइरेक्टोरेट, सीबीडीटी और मादक द्रव्य नियंत्रण ब्यूरो जैसी अन्य एजेंसियों के अधिकारियों को भी इसमें लिया जाएगा.

क्यों कर रहे हैं राज्य विरोध

कई राज्य सरकारों ने केंद्र को एनसीटीसी की कार्यप्रणाली, शक्तियों और कर्तव्यों पर पुनर्विचार करने और उसे वापस लेने का सुझाव दिया है. दरअसल एनसीटीसी को बगैर राज्य सरकार और राज्य पुलिस की अनुमति लिए वहां तलाशी और गिरफ्तारी करने का अधिकार दिया गया है. राज्य की पुलिस और अन्य खुफिया एजेंसियों को आतंक से जुड़ी सभी गोपनीय जानकारी एनसीटीसी के साथ साझा करनी होगी. बस यही बात राज्यों को नागवार गुजर रही है और उन्हें ये अपने क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप दिख रहा है.