
हाल में राज्यसभा ने कोलकाता हाईकोर्ट के जज जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ धन की हेराफेरी और झूठे बयान देने के आरोप में महाभियोग प्रस्ताव पास कर दिया. अब ये प्रस्ताव लोकसभा में लाया जाएगा. इस बीच राज्यसभा में विपक्ष के नेता और भाजपा के अरुण जेटली ने उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की कॉलेजियम द्वारा की जाने वाली नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को वैधानिक नियमन वाले अधिकार दिए जाने चाहिए. यहां विस्तार से जानते हैं इस कोलेजियम और इससे जुड़े विवाद के बारे में...
क्या है कोलेजियम
कोलेजियम एक ऐसी प्रणाली या सिस्टम है जिसके जरिए जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति इसी सिस्टम के तहत होती है. इस सिस्टम में भारत के प्रधान न्यायाधीश और चार अन्य वरिष्ठ जज होते हैं. कोलेजियम का जिक्र भारतीय संविधान में नहीं है.
क्या कहता है संविधान
संविधान के अनुच्छेद 124 में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का जिक्र है. इसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा. जजों की नियक्ति के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाएगा. अगर राष्ट्रपति चाहे, तो अन्य जजों से भी सुझाव ले सकता है.
अनुच्छेद 217 में हाइकोर्ट के जजों की नियुक्ति का उल्लेख है. इसमें कहा है कि राष्ट्रपित जजों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के राज्यपाल के परामर्श से करेगा. इसके अलावा संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से भी सलाह ली जाएगी.
कोलेजियम की शुरुआत
मौजूदा कोलेजियम सिस्टम न्यायपालिका के तीन निर्णयों का नतीजा है. इन तीन निर्णयों को थ्री जजेज केसेज कहा जाता है. फस्ट जजेज केस है एस पी गुप्ता केस (30 दिसंबर, 1981). इसमें जस्टिस जे एस वर्मा ने कहा गया कि ठोस तर्क या कारण के आधार पर राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश दरकिनार कर सकता है. इस निर्णय ने न्यायापालिका में नियुक्तियों को लेकर कार्यपालिका को शक्तिशाली बना दिया. ये स्थिति अगले 12 साल तक रही.
इसके बाद 6 अक्टूबर, 1993 को सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय पीठ ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट-ऑन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में निर्णय दिया. ये केस सेकेंड जजेज केस था. कोलेजियम सिस्टम की शुरुआत में इस केस की अहम भूमिका रही. इस केस में एस पी गुप्ता केस के फैसले के उलट ये निर्णय दिया गया कि न्यायापालिक के मामले में भारत के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका अहम है और इसमें कार्यपालिक का समान अधिकार नहीं दिए जा सकते. इस निर्णय को लेकर पीठ के सदस्यों के असहमति थी. इस निर्णय से ‘परामर्श’ शब्द के दायरे को काफी सीमित कर दिया.
अगले पांच सालों तक जजों की नियुक्ति और तबादले को लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य दो जजों की भूमिकाओं में असमंजस की स्थिति बनी रही. कई केसों में तो मुख्य न्यायाधीश ने अन्य दो न्यायाधीशों से परामर्श किए बिना एकतरफा फैसले लिए. राष्ट्रपति केवल एक अनुमोदक के तौर पर हो गया.
1998 में राष्ट्रपति के आर नारायणन ने सुप्रीम कोर्ट को एक प्रेजिडेंशियल रेफरेंस जारी किया. इसमें सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 124, 217 और 222 में वर्णित ‘परामर्श’ शब्द के मायने पूछे गए. जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण संबंधी अहम बातों को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए. जारी की गई पहली गाइडलाइंस में परामर्श शब्द की व्याख्या की गई थी. बताया गया कि परामर्श का मतलब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की उस राय से होगा जो कि अन्य जजों के साथ सलाह-मशविरा करके बनी है. कहा गया कि एकमात्र सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत राय परामर्श नहीं.
इन दिशा-निर्देशों के बाद ही वर्तमान कोलेजियम उभर कर सामने आया. इसके अलावा 28 अक्टूबर, 1998 को जस्टिस एस पी भड़ूचा द्वारा दिया निर्णय थर्ड जजेज केस था. इस केस से एक बार फिर कार्यपालिका पर न्यायापालिका की ‘श्रेष्ठता’ वाला सिद्धांत रेखांकित हुआ.
क्यों है इस सिस्टम का विरोध
इस सिस्टम पर सबसे बड़ा एतराज ये जताया जाता है कि इसमें न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं. साथ ही किसी पृथक सेक्रेटेरिएट के अभाव में नियुक्ति या स्थानांतरण किए जाने वाले जजों की पृष्ठभूमि या उनसे संबंधित अतिआवश्यक जानकारी हासिल नहीं हो पाती. इसी वजह से कोलेजियम बहुत से योग्यतम जूनियर जजों और एडवोकेटों की अनदेखी भी कर देता है. जानकारी सार्वजनिक न किए जाने की वजह से नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता भी नहीं आ पाती.
सौमित्र सेन से पहले जस्टिस पीडी दिनकरन प्रकरण के दौरान भी उच्च न्यायापालिका में नियुक्ति प्रक्रिया पर उंगलियां उठी थी. सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पीडी दिनकरन पर जमीन पर कब्जा करने एवं बेहिसाब संपत्ति जुटाने का आरोप है. यहीं नहीं, पिछले साल भी दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अजित प्रकाश शाह ने अपने विदाई समारोह में सवाल उठाया था कि उनकी प्रोन्नति उच्चतम न्यायालय में क्यों नहीं हुई. समय-समय पर इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं.
कोलेजियम का विकल्प
2003 में एनडीए सरकार के कार्यकाल में लोक सभा में 98वें संविधान संशोधन के तहत एक बिल गया. इस बिल में एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने की सिफारिश की गई, जिसका मुकिया भारत का मुख्य न्यायाधीश होगा. उसके साथ सुप्रीम कोर्ट के ही दो अन्य वरिष्ठ जज और केंद्रीय कानून मंत्री होगा. आयोग में एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति भी होगा, जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से करेगा. ये आयोग जजों की नियक्ति, उनका स्थानांतरण और उसके खिलाफ लगने वाले अनियमितताओं के आरोपों की जांच करेगा.