Wednesday, May 6, 2009

इंटर्नशिप थी या फ्रॉडशिप

3 मई 2009........ कल बहुत दिनों बाद उगते और ढलते सूरज को देखा। अरबों लोगों को रोज एक नया संदेश देता ये उगता-ढलता सूरज मेरी जिंदगी से कुछ वक्त के लिए गायब हो गया था। अरें नहीं नहीं यारों..... मैं किसी जेल में नहीं, दरअसल मैं एक टीवी चैनल में अपनी एक महीने की इंटर्नशिप कर रहा था। इंटर्नशिप में मेरा लक्ष्य था सिखना.. जिसके लिए मुझे ईवनिंग शिफ्ट दी गई, वक्त था दोपहर 3 बजे से रात 12 बजे तक। वो बात और है कि इस दौरान मेरी आंखें कुछ सिखने के लिए सिस्टम और कुर्सी को दूरबीन लगा कर तलाशती रहती थी!
2 महीने की इंटर्नशिप, पेड इंटर्नशिप, पॉलिटिकल डेक्स, अच्छा काम किया तो 2 महीने बाद जॉब का लड्डू! ये कहकर चैनल ने हमें बुलाया। ये सब बताकर संस्थान ने हमें भेजा। लेकिन.......
न तो 2 महीने की इंटर्नशिप मिली।
न तो वो पेड थी।
न तो वहां कोई पॉलिटिकल डेक्स था।
न अच्छा काम करने पर जॉब मिली। (मैं अच्छा काम कर रहा था, इसका ई-मेल न्यूज रूम से एचआर में किया गया था।)
1 महीने बाद बिना कुछ दिए उन्होंने कह दिया जाओ।
क्यों का उत्तर दूंगा तो वो एक खुलासे से कम नहीं होगा। और ये खुलासा इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि कलम की स्याही पैसों में आती है जिसे कमाने के लिए बहुत सी चीजों के साथ समझौता करना पड़ता है।
बहरहाल! इन 30 दिनों की इंटर्नशिप के दूसरे ही दिन मुझे टोक दिया गया। कहा- ये तुम्हारें बालों को क्या हुआ। मैंने कहा सर उड़ गए। मुझे हिदायत दे दी गयी कि ये टेलीविजन है स्मार्ट बन कर रहा करो।
नई शिफ्ट और शेड्यूल में मुझे ऐसी सीट पर झोंक दिया गया जहां से मेरे एक क्लिक पर स्क्रिन पर न्यूजं फ्लैश होती है। एक हफ्ते काम किया। फिर गलती हुई तो मुझे वहां से हटा दिया गया। भरे न्यूजरुम में ये कहा गया कि तुम्हें यहां बैठाया किसने? ये बात उस शख्स ने मुझे कही थी जिसने मुझे वहां बैठाया था और जिससे पूछकर और जिसे दिखाकर ही मैं न्यूज फ्लैश किया करता था। वो बात अलग है कि वो गलती मेरी नहीं किसी और की थी। बात दिल को चुभी, गुरुजनों को बताई, गुरुजी ने कहा- इस अपमान को भूलों मत, दिल के एक कोने में दबा लो...... सो दबा लिया।
अब तक यहां कि खराब तबीयत को मैं जान चुका था। पत्रकारिता के माहौल में पेन के लिए मारामारी मची रहती थी। मैं नया था। बड़ी विन्रमता के साथ दिए 4 पेन मैं खो चुका था। लिखने का काम वैसे ही नहीं देते थे। ऐसे हालातों में पत्रकार बनने की चाह रखने वाले एक इंटर्न के लिए निश्चित तौर पर ये अशुभ संकेत थे। टीवी पर चल रही थोड़ी गलतियां बताई तो आसपास घूम रहे अनुभवी लोग अपने को इनसिक्योर फील करने लगे।
और हां एक बात और! ब्लंडर क्या होता है ये भी मैंन जाना। जिस गलती को सीईओ साहब देख ले, हो ब्लंडर है। बाकी तुम खुदकुशी को खुदखुशी लिखो, टाई की जगह ड्रा लिखो, बीपीएल परिवार की जगह बीजेपी परिवार लिखो, तुम्हारी मर्जी!
अक्सर बात होती है कि पत्रकारिता को मजबूरी में बेचा जा रहा है...... लेकिन यहां जब-जब प्राइम टाइम में गंभीर राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा के लिए ऐड गुरुओं को बतौर गेस्ट एडीटर बुलाया जाता था तो मुझे लगा पत्रकारिता को मजबूरी में नहीं जबरदस्ती बेचा जा रहा है। इवनिंग शिफ्ट में सबका एक ही लक्ष्य रहता था..... बस प्राइम टाइम शो अच्छा निकल जाए। एक दिन मैने प्राइम टाइम शो खत्म होने के बाद
इराक में बम फटने, कई लोगों के मारे जाने, और उसके शॉट्स आने की खबर देने की हिमाकत कर दी तो मुझे ये सलाह दी गयी- '' मरने दो सालों को''। आस्ट्रेलिया में चूहों ने जब नर्सिंग होम में मरीज को कुतर कर मौत के करीब ला दिया, और मैंने जब ये खबर और इसके शॉट्स दिये तो उल्टा मुझसे ही एक बहुत गभीर प्रश्न पूछ लिया गया- ''चूहों के मरीज को कुतरते हुए असली शाट्स तो तुमने दिए ही नहीं?''

खैर मुझे वहां कलम की दहाड़ की जगह उसकी सुगबुगाहट जरूर महसूस हुई। इसका एहसास तो मुझे इंटर्नशिप के पहले ही दिन हो गया था जब मैंने सिक्योरिटी गार्ड को जमीन पर पैर ढोंक कर थम मारते हुए सीईओ साहब को सलाम मारते हुए देखा था। असल में वो तानाशाही को सलाम था।
मुझे वो आईस्क्रीम वाले का बेबाकपन हमेशा याद आएगा जिसे अक्सर ये शिकायत रहती थी कि इस चैनल के लोग कब उसकी 15 और 20 रुपये वाली आइस्क्रीम को खरीदना शुरू करेंगे! मुझे वो ऑफिस बॉय का निराशावादी रवैया भी याद आएगा जिसने ये कहां था कि ''भैया, पहले तो कोई खाने पीने और स्टेशनरी की चीजों का हिसाब ही नहीं मांगता था लेकिन अब तो पानी की बोतल का भी हिसाब मांगते हैं''। मैं कामना करुंगा कि कम से कम इन लोगों की हसरतें तो पूरी हो!

Friday, February 27, 2009

अरे भैय्या इससे अच्छा तीन रुपया की टिकेट ही ले लेता!

अरे भैय्या! "रघुकुल रीत सदा चली आई प्राण जाए पर वचन न जाए " तो सुना था लेकिन "इज्जत जाए पर तीन रुपया न जाए" ये पहली बार सुना है। राम जी की रीत कौन अपनाता है तो पता नही लेकिन कुछ महाशय तीन रुपया और अपनी इज्जत से जुआ खेल कर दूसरी रीत अपना लेते है। इस बार मुलाकात एक ऐसे ही महाशय से हो गई जो इसी धुन पर चल रहे थे।
भाईसाहब बस में चढ़ते ही पीछे वाली सीट पर ऐसे बैठे जैसे उनके पिताजी की सीट हो। शरीर जरुरत से ज्यादा चोडा करके, पाँव फैलाकर! वैसे इस 24-25 साल की ढिंग का शरीर लंबा चोडा था! ससुरा खाते पीते खर का लग रहा था। हांजी बिल्कुल ठीक समझे वो खूब खाए हुए था और खूब पिए हुए भी था। आँखे खरगोश की तरह लाल थी! अचानक बाउजी और भी अग्रेस्सिव हो गए। ये मजाल हुई बस के कंडक्टर की जिसने उसकी तरफ़ देख कर टिकेट की बात कर दी। ढिंग ने बड़ी ही सहज तरीके से कहा 'चल आगे चल!' लास्ट टाइम ये सहज तरीका मैंने एक सन्यासी बाबा में देखी थी। कंडक्टर की भी मति मरी गई थी की उसने उससे अपनी मासूम आँखों से घूर दिया। इतना ही नही उसने दोबारा घूर कर टिकेट मांग ली, कहा की नही भाईसाहब, ऐसे नही चलेगा, टिकेट तो ले लो।
ढिंग ने उससे समझाया की, देख घूर मत लेकिन वो नही माना।
ढिंग उठ खड़ा, गुर्राया , कंडक्टर की गिरिबान भी पकड़ ली। अब तो भैया शामत आ गई थी उस ढेड फुटिया
कंडक्टर बबुआ की। ढेड फुटिए ने जैसे ही गिरिबान छोड़ने की अपील की, उस पर थपडो और घुसो की बरसात हो गई । घुसेड दिया गया उसे बस की सीटो में। बस में दुर्भाग्य से थोड़े ही लोग थे लेकिन उन भले लोगो ने बचने की कोशिश की । लेकिन उनका मनोरंजन उनकी कोशिश पर भारी पड़ गया। मजबूर होकर ड्राईवर को बस रोक कर ख़ुद ही युद्ध विराम कराने आने पड़ा।
लेकिन वो ढिंग तो उसे छोड़ ही नही रहा था। वैसे बीच बीच में ढेड फुटिया ने भी हाथ पैर मरने में कमियाबी हासिल की। फिर क्या था ड्राईवर भाईसाहब ने 100 नम्बर पर फ़ोन कर दिया। अब उस ढिंग के पैर बस के गेट के बाहर की खिसकने लगते है। अगले ही पल वो बस की बाहर भागने लगा। ढेड फुटिया उसके पीछे। ढेड फुटिए के पीछे ड्राईवर। अब ढेड फुटिए में दम जोश आ गया।
ड्राईवर ने कुछ दुरी तक तो पीछा किया । फिर वापस आ गया। और बस चला दी। 2 किलोमीटर दूर जाकर अचानक बस रुकी। गज़ब का सीन था, ढेड फुटिए ने एक भले जनाब की मदद से उस ढिंग को पकड़ लिया था और सीना चोडा कर खड़ा था। ड्राईवर के बस से उतरते ही उसने उस ढिंग को मारना शुरू कर दिया। ड्राईवर और बस के दो जवान हाथो में भी खुजली मची और चारो ने मिलकर उसे धोना चालू कर दिया। धे घुसे, धे लाते।
हीरो रहे वो दो नोजवान। उनको ये बीत्तेक्स मरहम मस्त रास आई।
अपना मिशन पूरा कर बस की बारात उस 3 रूपये के मजनू को लावारिस की तरह रोड पर छोड़कर चल पड़ी।
चलती बस में एक तरह का खुशी का मंज़र नज़र आया और लोगों की मुंह से खुशी की कलियाँ खिलने लगी मानो अश्वमेध का घोड़ा पकड़ लिया हो और उसके आका को युद्ध में हरा दिया हो। खासकर वो दो लड़के।
इसी बीच अचानक बस रुकी और अगले ही पल वो कंजूस, महानुभव् , 3 रुपया का आशिक, डींग बस के
अंदर आ खड़ा हुआ। ललकारकर लेकिन दबी आवाज़ में बोलने लगा वो दो लड़के कहा है! वो दो लड़के कहा है! वो दो लड़के वही उसके पास बैठे थे। लेकिन वो शराबी उन्हें पहचान नही सका। कहने लगा कोई बात नही मोबाइल तो में निकलवा लूँगा! यह कहकर वो बस से उतर गया।

Tuesday, January 6, 2009

मैं और 1 जनवरी 2009


बिस्तर से उठते ही भगवन को प्रणाम किया और सोचा की आज की शुरुआत कुछ अलग करके की जाए । माता पिता के पैर छुए तो उन्हें लगा की यह वर्ष वाकई में इसके लिए एक नव वर्ष है और इस बार इसने कुछ कर गुजरने की सोच ली है।


रोज की तरह दूध लेने के लिए जैसे ही घर से निकला तभी जोर से एक आवाज़ आई ' हैप्पी न्यू इयर भैय्या' ! एक युवक हाथ बढ़ाये मेरे सामने खड़ा था। यह युवक मेरा पड़ोसी था जो कि आर्थिक मंदी कि मार झेल रहा था। वह बेरोजगार था और उसकी दाढ़ी बड़ी हुई थी। उसके 'हैप्पी न्यू इयर' से मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे मैं अपशगुन मानू या आशावादी प्रवृति का सशक्तिकरण मानू। मैंने बनावटी हसी के साथ हाथ मिलाया और कह दिया 'हैप्पी न्यू इयर' !



कुछ दिन पहले ही आज के लिए एक जिम्मेदारी मेरे पल्ले बाँध दी गई थी कि मुझे अपनी बहन को छोड़ने अलवर जाना है और उसी दिन वापस भी आना है। और इस तरह नए साल का पहला दिन का मेरा अधिकांश समय ट्रेन में सफर करते बीता।


जब ट्रेन में अखबार का वह पेज पढ़ रहा था, जिसमे भारत का 2009 में विकास की संभावनाओ पर विशेष आया था, तो मेरी नज़र खिड़की की बहार लहरा रहे हरे भरे खेतो पर पड़ी। यह जगह खैरतल थी। इन हरे भरे खेतोंपर पड़ती शीतल धूप बहुत सुंदर लग रही थी। तभी मेरे पास टीटी आया और टिकेट मांगने लगा। मेरे पास सामान्य डिब्बे का टिकेट था लेकिन में स्लीपर में बैठा था। इसलिए मैंने टिकेट के साथ 100 रुपये का नोट भी चार्ज के रूप में उसे दे दिया। मेरे और मेरी बहन के कुल 80 रूपये लगने थे। जब मैंने उससे 20 रूपये वापिस देने और रसीद देने के लिए कहा तो उसने कहा - "इतने ही लगते है"। मेरा स्टेशन आने वाला था इसलिए मैंने लालू के उस भ्रष्ट दूत से बहस करना उचित नही समझा। और सामान गेट की ओर ले गया।


दिल्ली वापसी के लिए जब स्टेशन पर पंहुचा तो मैं खुश हो गया। आदत से मजबूर मैं 10 मिनट लेट था लेकिन ट्रेन 40 मिनट लेट थी। तभी मुझे उस लेडी का वो कथन याद आया जो उसने मुझसे रेल के लेट होने से खिन्न होकर कहा था - " व्हेन विल इंडिया इमप्रोवे इत्सेल्फ़" ।


ये लेडी मरीशिउस की थी और मुझे 28 मार्च 2008 को ट्रेन में उस वक्त मिली थी जब मैं भारतीय सेना में शामिल होने की लिए एस एस बी इंटरव्यू दने जा रहा था। खुश होते होते मैंने अपने मन में कहा - "व्हेन विल आई इम्प्रूव मायसेल्फ। ट्रेन आई और इस बार भी सामान्य डिब्बे की जगह स्लीपर में बैठ गया।


'चाय चाय', 'वेज कटलेट', 'चना मसाला', 'काफी काफी' की आवाज़ बार बार मेरी नींद तोड़ रही थी। अचानक मैंने महसूस किया की मेरा पाव को कोई छू रहा है। अध् -नग्न हालत (केवल फटी पैंट में) घुटनों के बल रेंगता यह युवक ट्रेन की डिब्बे के फर्श पर से अपनी शर्ट से कूड़ा साफ कर रहा था। वह सामने हाथ फैलाने लगा। मैंने जब उसकी उपेक्षा की तो उसने मेरा जूता पकड़कर अपने माथे के लगा लिया। मैंने निर्दयी होकर जूता छुडाया और थोडी दूर जाकर खड़ा हो गया। वह जिस की भाव भंगिमा बना रहा था मुझे लग गया था की वह गूंगा - बहरा है। वह अगले कम्पार्टमेंट में गया तो एक बुदी काकी उस पर चिल्ला कर बोली - " अरे कमबख्त कितनी बार लेगा, अभी तो दिया था"!


जब वह ठण्ड से ठिठुरता अध् - नग्न आदमी पास बैठी एक फैशनेबल जवान शहरी लेडी की पास गया तो उस लेडी ने उसे देख अपने शाल से अपनी नाक डाक ली और उसकी आँखों में दया की जगह घृणा का भाव पैदा हो गया। तभी डिब्बे में कुछ हिजडे आए और फटाफट सभी से 10-10 और 20-20 रूपये वसूल कर चलते बने। मैं इस बार भी अपवाद और क्रूर बना रहा। दिल्ली स्टेशन आने वाला था तो मैं दरवाजे पर आ गया। वहां बैठे उसी अध् - नग्न व्यक्ति ने मुझसे बोला भाईसाहब स्टेशन उस तरफ़ नही इस तरफ़ आयेगा! स्टेशन आया और ट्रेन से उतर कर मैंने 1 जनवरी 2010 की ओर कदम बढ़ा दिया।